मीमांसादर्शनम्
मीमांसादर्शनम्- जैमिनी (300 वि. पू.)
शबरभाष्यम् – शाबर स्वामी (100 ई. पू.)
श्लोकवार्तिक, तंत्रवार्तिक, टुप् टीका- कुमारिल भट्ट (750८ई.)
तंत्रवार्तिक की व्याख्या – विधिविवेक, भावना विवेक , विभ्रम विवेक –
मण्डन मिश्र ( सुरेश्वराचार्य ) 800 ई.)
मीमांसा सूत्रानुक्रमणि – मण्डन मिश्र
न्यायकर्णिका-विधिविवेक की व्यख्या- वाचस्पति मिश्र (850ई. )
श्लोकवार्तिक की टीका – तात्पर्य टिका – श्री उम्बेक
पार्थसारथी मिश्र की 4 ग्रंथ
तर्करत्न – टुप् टीका की टीका
न्याय रत्नाकर – श्लोकवार्तिक की टीका
शास्त्र दीपिका –
न्याय रत्नमाला –
जैमिनीय न्यायमाला – विस्तर टिका सहित – माधवाचार्य सर्वदर्शन कार
भाट्ट कौस्तुभ , भाट्ट दीपिका , भाट्ट रहस्य – खण्ड देव मिश्र( 1650 ई.)
मीमांसान्यायप्रकाश- आपदेव ( 1650 ई.)
मीमांसापरिभाषा- श्रीकृष्णयज्वा
अर्थसंग्रह- लौगाक्षिभास्कर: ( 1640 ई.)
गुरुमत-
शबरभाष्य की वृहती टीका- प्रभाकर (775 ई. )
वृहती टीका- की टीका- ऋजु विमला टीका – आचार्य शालिकनाथ ( 790 ई.)
नायविवेक -भवदेव (900 ई.)
इसकी चार टीका –
विवेक तत्त्व – रंतिदेव ,
नायविवेक दीपिका -वरदराज ,
पंचीका-शंकरमिश्र ,
नायविवेकालंकार- दामोदर
तंत्ररहस्य – रामानुजाचार्य (1150 ई.) , यह ग्रंथ गुरुमत की प्रवेशक है
मुरारी मत –
त्रिपादीनीतिनयन , एकादशाध्यायाधिकरण – मुरारी मिश्र
अर्थसंग्रह:
धर्मलक्षणम्
1. चोदना लक्षणोsर्थो धर्म: (मी. द.2 जैमिनी )
2.धर्माख्यं विषयं वक्ततुं मिमांसाया: प्रयोजनम् (कुमारिल भट्ट)
3. यागादिरेव धर्म: , वेद प्रतिपाद्य: प्रयोजनवदर्थो धर्म: (अर्थसंग्रह:)
भावना
भावना नाम भभितुंभावनानुकूलो भावयितुर्व्यापरविशेष: -भावना
यह एक विशेष प्रकार की व्यापार है ।
भावना उत्तपन्न होनेवाले फल और क्रिया की उत्पत्ति में सहायक उत्पादयिता का विशेष प्रकार की व्यापार है ।
भावना 2 प्रकार
1. शाब्दिभावना
2. आर्थि भावना
1. शाब्दिभावना – पुरुष प्रवृत्त्यनुकुलो भावयितुर्व्यापरविशेष: शाब्दीभावना ।
अर्थ- व्यक्ति की प्रवृत्ति का जनक अथवा सहायक प्रयोजक का व्यापारविशेष है।
लिङ्ग अंशो से व्यक्त होता है । “गामानय ” अत्र गोत्वम्
भावना अंशत्रयमपक्षते- साध्यम् , साधनम् , इतिकर्तव्यताम्
साध्यम् – किं भावयेत् ?
साधनम् – केन भावयेत् ?
इतिकर्तव्यताम्- कथं भावयेत् ?
2. आर्थिभावना- प्रयोजनेच्छाजनितक्रियाविषयव्यापार आर्थिभावना ।
अर्थ- उद्देश्य की इच्छा से होनेवाले यागादि क्रिया का विषय व्यापार आर्थिभावना है ।
आख्यात सामान्य से कहा जाता है – यजेत , पचति, गच्छति
आर्थिभावना अंशत्रयमपक्षते- साध्यम् , साधनम् , इतिकर्तव्यताम्
यहां स्वर्गादि फल की इच्छा से होने वाले याग ही व्यापार है । यही आर्थिभावना है ।
मीमांसा दर्शन में सम्पूर्ण वैदिक भाग को पांच भाग में बांटा गया है ।
1.विधि 2. मंत्र 3. नामधेय 4. निषेध 5. अर्थवाद
1. विधि:- अज्ञातार्थज्ञापको वेदभागो विधि:
अर्थ- अज्ञात अर्थ के ज्ञापक वेद वाक्य विधि कहलाता है ।
यथा- अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकाम:
विधिचतुर्विध: –
१. उत्पत्तिविधि
२. विनियोगविधि:
३. प्रयोगविधि:
४. अधिकारविधि:
१. उत्पत्तिविधि- कर्मस्वरूपमात्रबोधको विधिरुत्त्पत्तिविधि: ।
यथा- “अग्निहोत्रं जुहोति ”
यहाँ कर्म के स्वरूप मात्र अग्निहोत्र के बोधक है विधि, इसलिए ये उत्त्पत्ति विधि कहलाती है ।
२. विनियोगविधि:- अङ्गप्रधान सम्बन्ध बोधको विधिर्विनियोगविधि: ।
यथा- “दध्ना जुहोति ” ।
अङ्ग और अंगी के सम्बन्ध की बोधक विधि विनियोग विधि है ।
३. प्रयोगविधि:
अर्थ- प्रयोगप्राशुभाव की बोधक विधि प्रयोगविधि है ।
यथा- दर्शपूर्णमासाभ्यां स्वर्गकामो यजेत
४. अधिकारविधि:- कर्मजन्यफलस्वाम्यबोधको विधिरधिकारविधि:
अर्थ- कर्मजन्य फल के स्वामी की बोधक विधि अधिकार विधि है।
यथा- यजेत स्वर्गाकाम:
२. विनियोगविधि:- अङ्गप्रधान सम्बन्ध बोधको विधि:
विनियोग विधि की सहायता करने केलिए श्रुति आदि छह प्रमाण है ।
1. श्रुति
2. लिङ्ग
3. वाक्य
4. प्रकरण
5. स्थान
6. समाख्या
1. श्रुति- निरपेक्षो रव: श्रुति: ।
अर्थ- अन्य प्रमाण की अपेक्षा नही रखने वाले को श्रुति कहते है।
सा त्रिविधा –
A. विधात्री
B. अभिधात्री
C. विनियोक्त्री
विनियोक्त्री ३ प्रकार की
१. विभक्तिरूपा –
२. एकाभिधानरूपा
३. एकपदरूपा
१. विभक्तिरूपा -की भेद
द्वितीयाश्रुति , तृतीयाविभक्तिरूपाश्रुति, सप्तमीविभक्तिरूपाश्रुति
तृतीयाविभक्तिरूपाश्रुति
– ब्रीहि भिर्यजेत (द्रव्यात्मिका),
– अरुणणया पिङ्गाक्षा एक हायान्या सोमं कृणाती (गुणात्मिका)
सप्तमीविभक्तिरूपाश्रुति
ब्रीहिन् प्रोक्षति [क्रियात्मिका ]
इमामगृभ्णन् रसना मृतस्य[ मंत्रत्मिका ]
2. लिङ्ग-
शब्दसामर्थ्यम् लिङ्गम् ।
अर्थ – शब्द के अर्थ प्रकासन की सामर्थ्य ही लिङ्ग है ।
‘बर्हिदेवसदनं दामि’ – हे देव तुमारे स्थान केलिए कुश काटता हूँ।
3. वाक्य – समभिव्याहारो वाक्याम् ।
अर्थ- अंग और प्रधान बोधक पदों का एक साथ उच्चारण( समभिव्याहार) करना वाक्य है ।
4. प्रकरण – उभयोकाङ्क्षा प्रकरणम् ।
अर्थ- उपकारी और उपकारक की
आकाङ्क्षा उसे प्रकरण कहते है ।
प्रकरणद्वैविधम् – महाप्रकरण- मुख्यर्भावना सम्बन्धी प्रकरण ,
अवान्तरप्रकरण -अंगर्भावना सम्बन्धी प्रकरण
5. स्थान – देशसामान्यं स्थानम् ।
“ऐन्द्राग्नमेकादशकपालं निर्वपेत्”,
“वैश्वानरं द्वादशकपालं निर्वपेत्”
6. समाख्या – समाख्या यौगिक: शब्द: । सा द्विविधा- वैदिकी लौकिकी च ।
यथा- होतुश्चमस भक्षणाङ्गत्वम् , होतृचमस: ( वैदिकी),
अध्वर्योस्तत्पदार्थाङ्गत्वम् ( लौकिकी )
3. प्रयोगविधिः-
अङ्गानां क्रमबोधको विधिः- प्रयोगविधिः
अर्थ- अंगों के क्रम की बोध कराने वाले विधि को प्रयोग विधि कहते है ।
श्रुति आदि छह सहकारी प्रमाण –
श्रुति- अर्थ- पाठ- स्थान- मुख्य- प्रवृत्ति।
१- श्रुतिक्रम: – क्रमपरवचनं श्रुति:
तत: , कत्वा, ल्यप ये श्रुति क्रम का बोधक है ।
दो प्रकार- केवलक्रमपरम् , तद्विशिशष्टपदार्थपरम्
“वेदं कृत्वा वेदिं करोति ” कुशमुष्टि के उपरांत वेदी निर्माण करना विहित है । अर्थात यज्ञ स्थल में गार्हपत्य अग्नि और आहवनीय अग्नि के मध्य चार अंगुल का गढ्ढा अभिप्रेत है ।
-तद्विशिशष्टपदार्थपरम्- ” वषट् कर्तु: प्रथम भक्ष”
२- अर्थक्रम: – यत्र प्रयोजनवशेन क्रमनिर्णय: -अर्थक्रम:
अर्थ पद प्रयोजन का वाचक है । प्रयोजन के अनुसार मंत्रो की क्रम समझना चाहिए ।
यथा- अग्निहोत्रं जुहोति, यवागुं पचति ।
यवागुं की आहुति से अग्निहोत्र करना है अर्थात पहले यवागुं पकाना चाहिए तभी उसकी अग्निहोत्र कर सकते है परंतु मंत्र में पहले “अग्निहोत्रं जुहोति” आया है । इसलिए अर्थ के अनुसार पहले यवागुं पकाना आवश्यक है । अतः अर्थ क्रम से यहां पहले यवागुं पकाना फिर अग्निहोत्र बादमे मानना उचित होगा ।
३. पाठ्यक्रम: – पदार्थबोधकवाक्यानां य: क्रमः स पाठ्यक्रम:
अर्थ- पदार्थ बोधक वाक्यों का जो क्रम है वह पाठ क्रम है ।
जिस क्रम से मंत्र पढ़ा जाता है उसी क्रम से अर्थ करना चाहिए ।
पाठक्रमो द्विविध: – मन्त्रपाठ:, ब्राह्मणपाठ: ।
मन्त्रपाठ:- मन्त्र पाठ में पहले मन्त्र सुनकर फिर अनुष्ठान करना चाहिए ।
ब्राह्मणपाठ- प्रयाजानां ‘समिधो यजति , तनूनपातं यजति ‘ ।
४. स्थानक्रमः – स्थानं नामोपस्थिति ।
अर्थ- जिस स्थान पर देवता की उप स्थिति हो उसको स्थान कहते है ।
जैसे पूजा मंडप में प्रथम स्थान पर इंद्र की स्थापना हो द्वितीय स्थान पर वरुण की स्थापना हो , उस उस स्थान को उस देवता को स्थान माना जायेगा और अनुष्ठान काल में पहले उस देवता की मंत्र पढ़ कर प्रथम अनुष्ठान उस देवता का होगा ।
५. मुख्यक्रम: – प्रधान क्रमेण योsङ्गानां क्रम आश्रियते स मुख्यक्रमः
अर्थ- जिस क्रम से प्रधानों का अनुष्ठान होता है उसी क्रम से प्रधान के अङ्गो का भी अनुष्ठान करना है ।
६. प्रवृत्ति क्रमः – सह प्रयुज्य मानेषु प्रधानेषु सन्निपातीनामङ्गानां वृत्त्यानुष्ठाने कर्तव्ये हि द्वितीयादि पदार्थानां प्रथमानुष्ठितपदार्थ क्रमाद्य: क्रमः स प्रवृत्ति क्रमः ।
यथा – प्राजापत्यपश्वङ्गेषु । प्राजा पत्या हि ” वैश्वदेव कृत्वा प्राजापत्यैश्चरन्ति ।
मन्त्र परिच्छेद: –
A- अपूर्वविधि: B- नियमविधि: C- परिसंख्या विधि:
A- अपूर्वविधि:– प्रमाणान्तरेणाप्राप्तस्य प्रापको विधिरपूर्वविधिः ।
( यो विधिरत्यन्ताप्राप्तमर्थं प्रापयति स अपूर्वविधि: -मीमांसा परिभाषा)
अर्थ- जो विधि सर्वथा अप्राप्त अर्थ का विधान करता है , उसे अपूर्वविधि करते है ।
यथा- दर्शपौर्णमास याग प्रकरण में “ब्रीहिन् प्रोक्षति ” इस वाक्य में ब्रीहि के प्रोक्षण का विधान है ।
यहाँ दर्शपौर्णमासीय याग प्रकरण में प्रयुक्त होनेवाले ब्रीहियों का प्रोक्षण (जल के द्वारा ब्रीहि को सींचना प्रोक्षण कहलाता है ) और किसी अन्य विधि से प्राप्त नही है ।
उक्त विधि ही तत्कालीन प्रोक्षण का विधान करती है जो पहले सर्वथा पहले अप्राप्त तथा अनिर्दिष्ट था । अतः अप्राप्त प्रोक्षणरूप अर्थ का विधान करने के कारण ही इसे अपूर्वविधि कहते है ।
B- नियमविधि:- नानासाधनसाध्यक्रियायामेकसाधन प्राप्तावप्राप्तस्या परसाधनस्य प्रापको विधिर्नियमविधिः
यथाहु: – विधिरत्यन्तमप्राप्तौ नियम: पाक्षिके सति। तत्र चान्यत्र च प्राप्तौ परिसंख्येति गीयते ।।
(मिमांसा परिभाषा के अनुसार – यश्च पक्षे प्राप्तमर्थं नियमयति स नियमविधिः। )
अर्थ- पक्ष में अप्राप्त को प्राप्त कराने वाली विधि नियम विधि है ।
यथा- ” ब्रीहिन् अवहन्ति ”
दर्शपूर्णमास याग में ” ब्रीहिन् अवहन्ति ” इस नियम विधि के द्वारा ब्रीहि के अवहनन (ओखली में कूटना ) का विधान है ।
यहाँ पर तंडुल निर्माण केलिए ब्रीहि से तुस विमोचन ( भूसी को अलग करना ) रूप कार्य अलग अलग उपाय से भी प्राप्त है । जैसे नाखून से अलग करना , मसीन से पीस कर अलग करना ।
परंतु यहाँ अवहनन के द्वारा ही तुस विमोचन करना विधान है । अन्य प्रकार से करेंगे तो अदृष्ट की प्राप्ति नही होगी ।
C- परिसंख्या विधि: –
उभयोश्च युगपत्प्राप्तिवितरव्यावृत्ति परो विधिः परिसंख्या विधि:।
अर्थ- जो विधि दो विधि एक साथ प्राप्त होने पर एक की निवृत्ति करे उसे परिसंख्या विधि कहते है ।
यथा- पञ्च पञ्च नखा भक्ष्या:
अर्थ- जिन प्राणियों के पाँच नख नही है उनका भक्षण नहीं करना चाहिए ।
इस प्रसंग में शास्त्रत: पञ्च नख भक्षण और रागत: अपञ्च नखभक्षण भी प्राप्त है । यहाँ परिसंख्या विधि से अपञ्चनखभक्षण का निवृत्ति हो जाता है ।
सा च द्विविधा- श्रौति लाक्षणिकी च।
श्रौति- 1. अत्र ह्येवावपन्ति अतएव उद्वपंन्ति । 2. नानृतं वदेत् ।
अर्थ- पवमानतिरिक्त स्तोत्र में आवाप नही करना । यहाँ एव कार के द्वारा पवमानतिरिक्त स्तोत्र पाठ की व्यावृत्ति वतलाया गया है । इस लिए यह श्रौति परिसंख्या विधि है ।
लाक्षणीकि- पञ्च पञ्च नखा भक्ष्या
पञ्च पञ्चनखा भक्ष्या ब्रह्मक्षत्रेण राघव । शशकः शल्यकी गोधा खड्गी कूर्मोsथ पञ्चम: ।।1।। ( वाल्मीकि रामायण)
पञ्च पञ्चनखा भक्ष्या धर्मत: परिकीर्तिता:। गोधा कूर्म: शश: खड्ग: शल्यकश्चेति ते स्मृता: ।।2।। (देवल स्मृति)
लाक्षणीकि परिसंख्या की दोषत्रय
a)- श्रुतहान – पञ्च पञ्चनखा भक्ष्यण निर्देश को छोड़ना पड़ता है (श्रुतार्थ परित्याग)
b)- अश्रुत कल्पना- अश्रुत शाशकादि भिन्न पंचनखा भक्षणकी निवृत्ति रूपी कल्पना करनी होती है । (अश्रुतार्थ कल्पना )
c)- स्वभावतः (रागत:) प्राप्त
का निषेध किया गया है (प्राप्तवाध)
प्रथम दो शब्दनिष्ट है और प्राप्तवाध अर्थ निष्ट है ।
3. नामधेयपरिच्छेद:-
नामधेयानां च विधेयार्थ परिच्छेदकतयाsर्थवत्त्वम् ।
अर्थ- विधि से प्रतिपाद्यों के परिच्छेदक अर्थात अन्य से व्यावर्तक होने के कारण नामधेय धर्म का ज्ञापक है ।।
नामधेयत्वे निमित्तचतुष्टयम्
१- मत्वर्थलक्षणाभयात्
२- वाक्यभेद भयात्
३- तत्प्रख्यशास्त्रात्
४- तदव्यपदेशात्
१- मत्वर्थलक्षणाभयात्
“उद्भिदा यजेत पशुकाम: “ यहाँ पर मत्वर्थलक्षणा भय से उद्भिद शब्द को नामधेय माना है । अन्यथा वाक्यभेद दोष होता ।
२- वाक्यभेद भयात् –
“चित्रया यजेत पशुकाम: ” इस वाक्य में वाक्यभेद नामक दोष कहीँ न आजाये इस लिए उसके निवारणार्थ “चित्रया ” शब्द को याग का नाम माना गया है ।
३- तत्प्रख्यशास्त्रात् –
” अग्निहोत्रं जुहोति “ इस प्रकरण में अग्निहोत्र शब्द को याग विशेष का नाम माना गया है । गुण वाचक देवता नही माना गया है क्यों की गुण की प्रापक शास्त्र विद्यमान है ।
४- तदव्यपदेशात् –
“ श्येनेनाभिचरन्यजेते “ अत्र श्येन शब्द का याग नामधेय है ।
श्येन याग शत्रु की नास केलिए किया जाता है । यहाँ श्येन शब्द से बाजपक्षी को नही मान सकते । ऐसे मानने पर असंगति होती है , श्येन उपमा है और याग उपमान है , याग की प्रकरण बाजपक्षी की स्तुति नही की जाती है याग की ही स्तुति की जाती है ।
4. निषेधविभाग: –
पुरुषस्य निवर्तकं वाक्यं निषेध: ।
यथा- न कलञ्ज भक्षयेत् । कलञ्ज न खायें।
(कलञ्ज- विषाक्त वाणों से मारे गए पशु पक्षी की मांस )
नञ्यस्वभावकथनम् – यत् स्वसमभिव्याहृत पदार्थविरोधिबोधकत्वम् ।
बाधकम् द्विविधम् – १- तस्य व्रतम् । २- विकल्प प्रसक्ति
१- तस्य व्रतम् –
“नेक्षेतोद्यन्तमादित्यम् “ ( निकल रहे तथा डूब रहे सूर्य को नही देखना चाहिए । ब्रह्मचारी केलिए अनुष्ठेय कर्म है )
२- विकल्प प्रसक्ति- ” यजतिषु ये यजामहं करोति नानुयाजेषु “
इस वाक्य में दो अंश है १- यजतिषु ये यजामहं करोति
२- नानुयाजेषु
इनमे पहला उपवाक्य पूर्ण अर्थ वाला है और दूसरे को अपनी पूर्णता केलिए प्रथम उपवाक्य के कुछ अंशों की अध्याहार अपेक्षित है ।
अर्थ-
१- यजतिषु ये यजामहं करोति ( याग में “ये यजामहे “मंत्र की पाठ करें )
२- अनुयाजेषु ये यजामहं न करोति (अनुयाजो में “ये यजामहे “मंत्र की न पाठ करें )
5. अर्थवाद विभाग:
प्राशस्त्यनिन्दान्यतरपरं वाक्यमर्थवाद: ।
अर्थ- प्रशंसा और निन्दा में एक का प्रतिपादक वाक्य अर्थवाद है।
अर्थवाद: द्विविध: – १. विधिशेष: २. निषेध शेष:
विधिशेष चतुर्विध: – प्रशंसा-निन्दा-परकृति-पुराकल्प
१- विधिशेष:-
” वायव्यं श्वेतमालभेत भूतिकाम ”
वैभव की कामना करने वाला श्वेतपशु का आलंभन वायु देवता केलिए करे ।
२. निषेध शेष:- “बर्हिषी रजतं न देयम् “
याग में राजत देने से बर्ष के भीतर रोना पड़ता है । इस लिए राजत दान का निषेध है ।
A. स पुनस्त्रिविधा –
अर्थवाद प्रकारान्तर से तीन प्रकार की है ।
विरोधे गुणवाद: स्यादनुवादोs वधारिते ।
भूतार्थवाद स्तद्धानादर्थवादस्त्रिधा मतः ।।
यहाँ प्रतिपादकता के आधार पर तीन प्रकार बतलाया गया है ।
गुणवाद:- जहाँ अर्थवाद वाक्य से विषय का दूसरे प्रमाण से वाध हो वहाँ गुणवाद स्वीकार किया जाता है । ” आदित्यों यूप: ”
अनुवाद:- दूसरे प्रमाण से ज्ञात विषय का ही अर्थवाद वाक्यों से कथन अनुवाद है । ” अग्निर्हिमस्य भेषजम् “
भूतार्थवाद:- जिस विषय को अन्य प्रमाण से जाना ही नही जा सकता हो । ऐसे विषय का कथन भूतार्थवाद कहलाता है ।
जैसे – ” इन्द्रो वृत्राय वज्रमुदयच्छ”
वृत्रासुर की बध केलिए इन्द्र ने बज्र निर्माण किया इसकी कथा है l
Thank you sir
I NeedTest series