जैन दर्शन की समीक्षा, सामान्य परिचय । Jaina Darshan samikshya hindi notes

जैन जीवनशैली में उपनिषत्

अनादिकाल से सृष्टि की प्रवाह चलता आरहा है। जिस में प्रत्येक प्राणी का जीवन जलधारा के समान प्रवाहित हो रहा है। इस प्रवाह में मानव की बहुत बड़ी विशिष्ट भूमिका है। मानव के ऊपर सम्पूर्ण जगत के नियंत्रण की भार है। मानव यदि कुशल न हो तो संसार की चल-प्रचलन अस्त व्यस्त हो जाएगा I

मानव की ही सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है क्योंकि मानव मात्र में ही विवेक होता है। मनुष्य में विचार करने की क्षमता होती है, जिस से वह शुध्द-अशुध्द, अच्छाई-बुराई, हिंसा-अहिंसा, उपकार-अपकार इन सभी में भेद कर पाता है और स्थान काल के अनुसार स्वीकार करना या त्याग करना इसका निश्चय कर पाता है।

मनुष्य की जीवन में अचार विचार न हो तो मनुष्य जीवन को मृत शब के समान माना जाता है। हमारे आचार्यों ने कहा भी है- अचार हीनं न पुनन्ति वेदा: अचार हीन व्यक्ति को न तो लोक में आदर मिलता है, न ही परलोक में सदगति मिलती है।

भारत वर्ष के प्राचीन महर्षियों ने मानव की आचार विचार को शुद्ध करने केलिय कुछ कपोटी तैयार किये है जो दर्शन शास्त्र के रूप में हमारे समक्ष है। इन्ही दर्शनों में से जैनदर्शन अन्यतम है। जैनदर्शन मानवता केलिय अत्यन्त उपयोगी है।

जैनदर्शन में प्रतिपादित त्रिरत्न मानव मात्र केलिय अमृतत्त्व का कार्य करता है। जिसने भी इनका सेवन किया उसे अमरत्त्व की ओर ले जाता है। मानव जीवन शैली में मानवता को सुसंस्कृत करने केलिय तथा परलोक की मार्ग को प्रसस्थ करने में अत्यन्त सहायक है।

जैनदर्शन की त्रिरत्न

सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चरित्र इन त्रिरत्नों पर ही जैनदर्शन की सम्पूर्ण आचारशास्त्र अवलम्बित है। जैसे दण्ड, चक्र, सूत्र, मृत्तिका आदि मिल कर घट का निर्माण करते है, उसी प्रकार ये त्रिरत्नों से मनुष्य जीवन की लौकिक तथा पारलौकिक मार्ग का निर्माण होता है। सम्यक् ज्ञान की पांच भेद- 1) मति 2) श्रुत 3) अवधि 4)मनःपर्याय 5)केवल

इन्हीं त्रिरत्नों में सम्यक् चरित्र जीवन केलिय अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि आचरण को ही मानव शास्त्रों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है यथा- यद्यदाचरति श्रेष्ठः तत्तोदेवेतरो जनाः । श्रीमद्भगवद्गीता के इस प्रसंग में आचरण को ही अधिक महत्व दिया गया है कि आचरण से ही किसी व्यक्ति के वास्तविक व्यक्तित्व का विस्तार किया जा सकता है।

जैनदर्शन में सम्यक् चरित्र के प्रसंग में पाँच महाव्रत विचार किया गया है, जो की वर्त्तमान जीवन उत्कर्ष जीवनशैली केलिय उपादेयता सिद्ध होता है।

जैन जीवनशैली में पाँच महाव्रत

पाँच महाव्रत अहिंसाव्रत, सत्यव्रत, अस्तेयव्रत, ब्रह्मचर्यव्रत, अपरिग्रहव्रत

अहिंसाव्रत

अहिंसाव्रत– जैनदर्शन में कहागया है प्रमाद से भी जब मनुष्य, पशु, पक्षी, लता वृक्ष आदि के प्राणों का विनास नही किया जाता है उसे अहिंसा व्रत कहा जाता है।

न यत्प्रमदयोगेन जीवितव्यपयोगम् ।

चरणां स्थावराणां च तदहिंसाव्रतं मतम् II

(सर्वदर्शन संग्रह, जैनदर्शन)

अहिंसा के विषय में छान्दोग्योपनिषत् में भी कहा है- आत्मनि सर्वेन्द्रियाणि संप्रतिष्ठाप्य अहिंसन् सर्वाभूतानि अन्यत्र तीर्थेभ्यः ।। (छा. उ. 8.15.1)। इस मंत्र में सभिप्राणियों की हिंसा न करते हुए, अनात्म विषयों से इंद्रिय निग्रह करते हुए, वेदाध्ययन करते हुए जीवन निर्वाह करने की वात कही गई है। अन्यत्र भी कहा गया है अहिंसा परपीड़ावर्जनम्। दूसरों को किसी भी प्रकार से दर्द न देना अहिंसा है।

सत्यव्रत-

सत्यव्रत- प्रिय, पथ्य तथा तथ्य वाणी को सत्यव्रत कहते है । जो वाणी प्रिय नही है तथा हितकर नही है वो वाणी सच्ची होकर भी सत्य नहीं है।

प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं सूनृतं व्रतमुच्यते ।

तत्त्यमपि नो फैक्ट्समप्रियं चाहितं च यत् ।।

(सर्वदर्शन संग्रह, जैनदर्शन)

अन्यत्र शास्त्र में भी कहा गया है सत्यं वद धर्म चर । सत्य बोलो और धर्म का आचरण करो ।

अस्तेयव्रत-

अस्तेयव्रत- अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना। जैनदर्शन में किसी भी वस्तु को बिना दिये हुए न लेना अस्तेयव्रत कहलाता है। क्यों की धन मनुष्यों की बाहरी प्राण होता है उस का हरण प्राण हरण के समान होता है।

अनादानमदत्तस्यास्तेयव्रतमुदीरीतम् ।

बाहरीः प्राणाः नृणामर्थी हरता तं हता हि ते ।

(सर्वदर्शन संग्रह, जैनदर्शन)

ब्रह्मचर्यव्रत मन, वचन, कर्म से सभी कामनाओं तथा सभी भोग्य पदार्थों का त्याग देना ब्रह्मचर्य व्रत है।

दिव्यौदरिककामनां कृतानुमतकारितैः ।

मनोवाक्कायतस्त्यागो ब्रह्माष्टादशधा मतम् ।

(सर्वदर्शन संग्रह, जैनदर्शन)

ब्रह्मचर्य के विषय में उपनिषत् में भी कहा गया है – गुरुकुलवास सहित भिक्षा से जीवन निर्वाह करना, स्त्रीसंग का त्याग करना शास्त्रानुकुल जीवन व्यतीत करना ये सभी ब्रह्मचर्य व्रत के सहायक माना जाता है।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति । (कठोपनिषत। 1.2.16),

तपश्च श्रद्धा सत्यं ब्रह्मचर्यं विश्च । (मुण्डकोपनिषत्। 2.1.7)।

इस प्रकार के मानव जीवन मे ब्रह्मचर्य को उपयोगी बताया गया है। सामाजिक जीवन हो या विरक्त जीवन हो उभय स्थल में ब्रह्मचर्य अत्यंत सहायक है। इस पर श्रीमद्भगवतगीता में कहा गया है-

प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारीव्रते स्थितः।

मनः संयम्य मच्छितो युक्त आसित मत्परः II (गीता. 6.14)

इस वचन से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाला, भयरहित तथा शांत अंतःकरण वाला मन को संयम करके परमात्मपद को प्राप्त कर सकता है। यहाँ पर ब्रह्मचर्य व्रत की महिमा को बताया गया है। यदि कोई भी मनुष्य ब्रह्मचर्य व्रत का आचरण करता है तो उसे जीवन में सुख संवृद्धि की प्राप्ति अवश्य हो सकता है।

अपरिग्रहव्रत- जैनदर्शन के अनुसार सभी वस्तुओं में इच्छा का त्याग कर देना अपरिग्रह है क्यों कि इच्छा से ही निसिद्द मार्ग पर भी प्रवृत्ति हो जाती है। इसलिए इच्छा ही नहीं होगी तो प्रवृत्ति भी नहीं होगी। सर्वभावेषु मूर्च्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः।

यदसत्स्वपि जाएत मूरच्छया चित्तविप्लवः ।। (सर्वदर्शन संग्रह, जैनदर्शन)

जीवन निर्वाह केलिय भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता होती है उसके विना जीवन निर्वाह संभव नही है, इसलिए आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना अपरिग्रह कह सकते है।

उपसंहार- भारतीय दर्शनशास्त्र सम्पूर्ण जगत में शांति प्रतिष्ठा केलिय मार्गदर्शक के रूप में जाना जाता है। भारतीय दार्शनिक विचार ही सम्पूर्ण विश्व को एक सूत्र में बांध सकता है। इसलिये भारतीय दर्शन की प्रत्येक सिद्धांत अपने अपने स्थान पर महत्त्व रखता ।

इसी संदर्भ में जैनदर्शन की भूमिका भी अतुलनीय है। जैनदर्शन मानव समाज को एक उत्तम जीवनशैली प्रदान करती है। उपरोक्त पाँच महाव्रत को योगसूत्रकार भी यम के रूप में बताया है- अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमः । (योगसूत्र.२.३०) तात्पर्य यही है की हमारे सभी दार्शनिक साधना की पक्ष में एक मत है। वेद से लेकर लौकिक वाङ्मय पर्यन्त जितने भी दर्शन है सभी मानव जीवन शैली को उत्कृष्ठ बनाने केलिय ही प्रेरित करते है। इसलिए वर्तमान की प्रसंग में प्रत्येक मनुष्य को इस प्रकार की शास्त्रीय जीवन शैली को स्वीकार करना अत्यन्त आवश्यक है। यदि मानव जीवन में जैनजीवन शैली को अपनाया जाए तो अवश्य ही जीवन में सुख, शांति, समृद्धि को वृद्धि होगी।

सप्तभङ्गीनय

स्यादस्ति– किसी प्रकार है

स्यान्नास्ति– किसी प्रकार नहीं है

स्यादस्ति च नास्ति च– किसी प्रकार है और नहीं है

स्यादवक्तव्यः– किसी प्रकार अवर्हैणनीय है

स्यादस्ति चावक्तव्यः– किसी प्रकार है और अवर्हैणनीय है

स्यान्नास्ति चावक्तव्यः– किसी प्रकार नहीं है और अवर्हैणनीय है

स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यः– किसी प्रकार है, नहीं है और अवर्हैणनीय है

जैन दर्शन की प्रमुख ग्रन्थ और ग्रन्थकार

विवेकविलास- जैनदत्त सूरी (1220ई.)

F.A.Q प्रश्र्नोत्तरी

जैन दर्शन की प्रवर्त्तक कौन है ।

महावीर जैन

जैनदत्त सूरी के ग्रन्थ का नााम क्या है

विवेकविलास

जैन जीवनशैली में कितने महाव्रत है

पाँच

जैनदर्शन की त्रिरत्न क्या क्या है

सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चरित्र

सम्यक् ज्ञान की पांच भेद क्या क्या है

1) मति 2) श्रुत 3) अवधि 4)मनःपर्याय 5)केवल

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