जगन्नाथ भगवान के पौराणिक इतिहास | Jagannath mandir pouranik itihas hindi

जगन्नाथ भगवान के प्राकट्य की पौराणिक कथा

जगन्नाथ भगवान के प्रकट के प्राचीन कथा

जगन्नाथ भगवान के प्राकट्य को ले कर बहुत सारे प्रचलित कथाएँ है । उनमे जो ओडिशा में प्रचलित है और प्रासङ्गिक भी है उनकी वर्णन आज करेंगे।

जगन्नाथ भगवान की कथा प्रारंभ होती है द्वापरयुग से , पुराणों के अनुसार जब भगवान कृष्ण अवतार की लीला सामापन करके अपने परम धाम गोलोक वैकुंठ जाने वाले थे एक दिन की बात है , स्वयं महाकाल श्रीकृष्ण से गुप्त मंत्रणा करने आये थे । उस समय अन्तरंग कक्ष में बड़े भाई बलराम जी , रुक्मिणी जी और भगवान श्रीकृष्ण के साथ मे महाकाल की वार्तालाप चल रही थी । श्रीकृष्ण ने अपने बहन सुभद्रा जी को बाहर द्वार पर खड़े किए थे और सक्त आदेश दिया था कि वार्ता के मध्य मे कोई भी अंदर नही आपाये । परंतु एक ऐसे घटना हुई की उस समय द्वार पर महर्षि दुर्वासा जी दर्शन केलिए पधारे है और सुभद्रा से बोले की जाओ और श्रीकृष्ण से बताओ हम दर्शन चाहते है । तब सुभद्रा असमंजस में पड़ गई इधार भाई के आदेश की पालन करूँ या महर्षि दुर्वासा जी के आदेश की पालन करूँ । भीतर गई तो भाई के आज्ञा का अवहेलना होगा नही गई तो कहीं महर्षि दुर्वासा के क्रोध का परिणाम पूरे राज्य को न भुगतना पड़ जाए। इसी असमंजस में अंदर चली गई सुभद्रा , उस समय काल अंतर्ध्यान हो गए और श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा जी कुछ क्षण केलिए काष्ठ मूर्ति के समान स्तब्ध हो गए । जब अपनी स्वरूप में आये तो रुक्मिणी जि ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि ये क्या हो गए थे। क्यों कि उस स्वरूप को देखने वाली अकेली रुक्मिणी जी थी । श्रीकृष्ण ने बताया कि इसी स्वरूप में अवतार लेंगे कलियुग में ,और भक्तो को दर्शन देंगे । इसलिए कहा जाता है की जब जगन्नाथ भगवान के मूर्ति की निर्माण हुई तो इसी स्वरूप में रह गए ।

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जगन्नाथ तत्त्व की रहस्य

  • जगन्नाथ भगवान की बहुत सारे रहस्यमयि कथाएँ प्रचलित है । द्वापरयुग के अंत मे जब यदुवंश का विनास हो चुका था । बहुत कम लोग द्वारका में बचे हुए थे ।
  • ( यदुवंश की विनास के बाद अनिरुद्ध की पुत्र बज्रनाभ और भगवान श्रीकृष्ण की 16100 पत्नियां बच गई – ये कथा हमारे यूट्यूब पर देख सकते है )
  • भगवान श्रीकृष्ण निश्चिन्त हो कर एक शियाली लता के छाओं में अपनि चरण ऊपर करके विश्राम कर रहे थे । उस समय एक जारा नाम का शबर (जंगल में रहने वाला शबर जाती का राजा ) शिकार करने केलिए आया था उसने भगवान के चरणों को हिरण की कान समझ कर तीर चला दी , और वो तीर जाके श्रीकृष्ण की चरण में लगी । जब जारा नजदीक आकर देखा तो उसे बहुत दुख हुआ और प्रार्थना पूर्वक क्षमा याचना करने लगा । अज्ञात बश आप के चरणों को हिरण की कान समझ कर तीर चलाई मुझे क्षमा करें। भगवान से जब उसे क्षमा कर दिया तब उसने पूछा कि आप कौन हो । जब भगवान ने अपने परिचय दिया तो जारा गदगद हो गया और भगवान के चरणों मे पड गया मेरे जन्म सफल हो गया जो आप के दर्शन पाया । और कहने लगा प्रभु यदि आप प्रसन्न हो तो मुझे वरदान दीजिये की मैं और मेरे सम्पूर्ण वंश आपके सेवा करते रहें। भगवान ने तथास्तु कहा और दिव्य शरीर से दिव्य रथ पर विराजमान हो कर अपने धाम गोलोक वैकुंठ को चले गए । भगवान की जो पार्थिव शरीर था उसको समुद्र के तट पर अर्जुन से स्वयं अंतिम संस्कार कराए ।
  • अन्त में एक रहस्य मई घटना हुई , श्रीकृष्ण की शरीर का एक अंश नाभिकमल अग्नि से दाह नही हुआ वैसे के वैसे ही रह गया । उसी नाभिकमल को अर्जुन ने समुद्र में विसर्जित कर दिया ।
  • संतो में मत में सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि इसी नाभि कमल से हुई है । ब्रह्मा जिस कमल के ऊपर बैठे है उस कमल की नाड़ी भगवान की नाभि से जुड़ा है ।
  • जब एक बच्चा अपने माता की गर्भ में रहता है तो वो भी इसी नाभि से जुड़ा हुआ रहता है । इसी नाभि से ही उस बच्चे को अमृत तत्त्व मिलता है , भोजन मिलता है । कहा जाता है कि सृष्टि की मूल आधार भगवान की नाभिकमल है । इसलिए अग्नि उसे नही जला पाई ।
  • वही भगवान की नाभिकमल समुद्र में बहते हुए कालांतर में ओडिशा के महानदी के तट पर पहुंचा । उस समय जारा शबर के वंश में पैदा हुए विश्वावसु नाम के शबर उस जंगल प्रदेश का राजा हुआ करते थे। रात्रि भोर के समय उन्हें स्वप्न हुआ कि भगवान की जो पार्थिव अंश उसे तुम गुफा में स्थापना करना और श्रद्धा से पूजा अर्चना करने , जब नींद खुली तो भोर हो चुका था , नदी में स्नान केलिए चल दिये। जब नदी में स्नान कर रहे थे तब उनको भगवान की वो नाभिकमल की दर्शन हुई , बहुत सुगंध आरही थी । भोर की स्वप्न को स्मरण करके उस नाभिकमल को लेकर आये और एक निर्जन गुफा में स्थापना कर दी । उस गुफा में उसके अनिरिक्त और कोई नही जा सकता था । पूरे जंगल कंटीला से भरा हुआ था , सघन कांटे की झाड़ियां होने के कारण वहां कोई नही जा सकता । एक पकडण्डी गुफा तक जाती थी , कहते है जङ्गली जानबर भी बहुत होते थे । आज भी उस जंगल को कंटीलो कि नाम से जाना जाता है ।
  • जो नाभिकमल की पूजा अर्चना शबर करते थे उनका नाम नीलमाधव पड़ा है। नीलमाधव का अर्थ भी जुड़ा हुआ है । जैसे हर बस्तु अपने शाब्दिक अर्थ को प्रकट करता है उसी प्रकार निलमाधब भी नाभिकमल से जुड़ा हुआ है । भगवान की नाभि कमल के समान नील रंग की है । ब्रह्मा जी जिस कमल पर बैठे है वो कमल भी नीला रंग की है । अतः जो निलमाधब भगवान है, वो नाभिकमल ही है । भगवान की कोई दिव्य चतुर्भुज रूप न होने के कारण संभाबत: अन्य किसी को दर्शन केलिए नही ले जाते थे गुफा में। स्वयं विश्वावसु प्रतिदिन जाते थे और नीलमाधव के पूजा अर्चना करके लौट आते थे । इस तरह की अनेक वर्ष वित्त गए ।

जगन्नाथ भगवान की मूर्ति किसने वनबाई , पौराणिक कथा

  • पौराणिक और प्राचीन लोककथा के अनुसार द्वारपर युग के बाद कलियुग के प्रारम्भ में इन्द्रद्युम्न नाम के एक राजा हुए , भगवान विष्णु के परम भक्त थे , संत ब्राह्मणों के प्रति अटूट श्रद्धा थी । उनको स्वप्नादेश हुआ कि तुम मेरे निलमाधब स्वरूप को लाकर शंखक्षेत्र में स्थापना करो और मेरे पूजा अर्चना करो। जैसे ही प्रातः हुआ अपने विस्वस्थ ब्राह्मण को सभी वृतांत सुनाए , स्वप्न में जैसे जैसे संकेत मिले थे वैसे वैसे सुनाए । अन्त में यही तय हुआ कि निलमाधब भगवान की खोज किया जाए । विद्यापति नामक श्रध्दालु ब्राह्मण को भेजे निलमाधब के खोज केलिए ।
  • पंडित विद्यापति कुछ दिनों के पश्चात लिंगराज पहुंचे और वहाँ पर भगवान शंकर की पूजा आराधना किये वहाँ से महानदी के तट होते हुए कंटीलो कि ओर चल दिये कुछ दिन बीतने के बाद उस कांटे से भरा वन में पहुंचे , पर कुछ पता नही चल पाया कि कहां जाएं कैसे खोजे ऐसे में एक पेड़ के नीचे थके हाल में विश्राम कर रहे थे और निद्रा आगई , उसी बक्त कुछ शबर कन्याएं वहाँ खेलते हुए आपहुँची ललिता नाम की एक कन्या के आंख में पट्टी बंधी हुई थी और उसने आकर विश्राम करते हुए विद्यापति के हाथ पकड़ लिया , इतने में और कन्याए आगई और सौर करने लग गई विद्यापति का जब आँख खुली तो उनको शबर जाती के लोग पकड़ के अपने सरदार विश्वावसु के पास ले गए और सभी वृतांत सुनाए । विश्वावसु ने ने कहा कि ब्राह्मण श्रेष्ठ हम आपके आदर करते है परंतु हमारे शबर जाती में यदि किसी कुँआरी कन्या को कोई पुरुष स्पर्ष करता है तो उसे उस कन्या के साथ विभाह करना पड़ता है । विद्यापति ने विनम्रता से कहा जो नियति में लिखी है वो मुझे स्वीकार है । ललिता बास्तव में शबर राजा विश्वावसु के पुत्री थी । ललिता की विवाह विद्यापति से हो गई ।
  • एक दिन की बात है विद्यापति को स्वप्न हुआ कि महाराज इन्द्रद्युम्न के पत्नी महारानी गुंडिचा बहुत दुखी हो कर कह रही है की विद्यापति तुम अपने कर्तव्य भूल गए क्या तुम किस कार्य से आये थे । जब नींद खुली तो विद्यापति काफी दुखी हुए । प्रातः ललिता ने विद्यापति को चिंतित देख कर पूछ लिया कि क्या हुआ , ऐसे दुःखि क्यों हो । तब सारे बाते बताई , ललिता ने कहा ये तो पहले बताते की तुम्हें निलमाधब की दर्शन करनी है , मेरे पिता प्रतिदिन भोर नीलमाधव की पूरा करने जाते है ।
  • ललिता ने अपने पिता को अनुरोध करने पर विश्वावसु राजी हो गए दर्शन कराने केलिए । और एक सर्त रख दिये कि मैं रास्ता नही दिखाऊंगा आंख में पट्टी बांध कर ले जाऊंगा ।
  • एक दिन विश्वावसु ने विद्यापति की आंख में पट्टी बांध कर अपने साथ ले गए । विद्यापति ने कोई अवसर नही छोड़ना चाहता था इसलिए अपने विवेक के अनुसार अपने कपड़े में कुछ सरसों की दाने बांध लिए और रास्ते मे जब चले तो थोड़ा थोड़ा गिराते गए । आखिर विद्यापति ने निलमाधब भगवान की दर्शन किये और अपने को कृतार्थ समझे। कुछ दिन और बित गया एक दिन विद्यापति ने अपने योजना के अनुसार सरसों की दाने जो छिड़के थे रास्ते भर में उसकी पौधे हो चुके थे उसको देखते हुए निलमाधब तक कि रास्ता देख लिए और जा कर महाराजा इन्द्रद्युम्न को बताए ।
  • महाराजा इन्द्रद्युम्न अपने सेवको के साथ आके नीलमाधव भगवान को पूरी क्षेत्र में ले आये । इधर विश्वावसु अपने इष्ट को गुफा में नही पा कर विह्वल हो उठे , ललिला के बताने पर सभी लोगो के साथ पूरी पहुंचे । जब विवाद बढ़ गया तो सभी शबर लोगों को सैनिकों ने बंदी बना लिया ।
  • एक तरफ राजा को एक बात की चिंता थी कि निलमाधब भगवान के कोई स्वरूप नही है इनकी पूजा अर्चना कैसे करेंगे । लोग दर्शन के लिए आएंगे तो क्या सोचेंगे । उस रात्रि राजा को स्वप्न हुआ की बहुत बड़े बड़े दारू ( लकड़ी ) समुद्र के बांकी मुहाण में लगा है उसे ले आओ और मेरे मूर्ति बना कर उसमे मेरे निलमाधब स्वरूप की स्थापना करो। सैनिको ने जब लकड़ी लाने केलिए गए तो उनसे उठा नही । लकड़ी को किसी ने हिला तक नही पाए । तब राजा को फिर स्वप्न हुआ कि मेरे परम भक्त विश्वावसु और विद्यापति इन दोनों को ले जाओ यही मेरे सेवा करेंगे ।( आगे चल कर शबर के लोग और विद्यापति- ललिता के जो संतान हुए आज तक उनके वंसज ही जगन्नाथ भगवान के सेवा करते आरहे है । विद्यापति के जो वंश में हुए उनको दायितापति कहा जाता है । आज वे अलग अलग सेवा में नियुक्त है।)
  • राजा ने विश्वावसु को सम्मान पूर्वक बुलाये और विद्यापति सहित बांकी मुहांण में गए । जौसे ही विद्यापति और विश्वावसु ने हाथ लगाए आसानी है लकड़ियां उठ गई । लकड़ियां ले कर आगये।

जगन्नाथ भगवान के आधे आधे मूर्ति क्यों है ?

  • राजा ने दूर दूर से कारीगर बुलाये परंतु जब कारीगर लकड़ी पर सेनी मारते तो लकड़ी बिल्कुल भी कटती नही । अन्त में एक बृद्ध कारीगर आये और कहा कि मैं बनाऊंगा मूर्ति । एक सर्त है मुझे 21 दिन तक बाहर से बंद कारदो 21 दिन से पहले कोई भी दरवाजा नही खोलेगा , यदि खुला तो अनर्थ हो जाएगा । राजा से वैसे ही व्यवस्था कर वाई । आज जहां पर गुंडिचा मंदिर है उसी स्थान पर भगवान की मूर्ति बनाई गई थी। चारों तरफ से सभी दरवाजे बंद कर दिए गए । बीच बीच मे महारानी गुंडिचा कान लगा कर सुनती रहती थी कि ठक ठक आवाज आरही है या नही कुछ दिन बीतने के बाद आवाज आना बंद हो गया , तब महारानी घबरागई और , दरवाजा खोलने केलिए कहा , तब राजा ने न चाहते हुए भी कारीगर की मृत्यु की आशंका से दरवाजा खोल दिये जब देखा तो मूर्ति सभी अधूरे है हाथ आधे बने हुए है , पेर बना ही नही है , न भगवान के कोई विष्णु जैसे स्वरूप बना है , सब दुःखि हो गए । तब आकाश से सुनाई दी कि इस युग मे इसी स्वरूप की पूजा होगी । मैं निश्चल हो कर पूजा पाऊंगा इसलिए तुम मेरे ऐसे ही पूजा करो। जगन्नाथ भगबान के साथ तीन मूर्ति बनी थी । जगन्नाथ , बड़े भाई भलभद्र और बहन सुभद्रा । और सुदर्शन । कहा जाता है विश्वकर्मा बृद्ध कारीगर वन कर आये थे।
  • जगन्नाथ भगवान लकड़ी से बने है इसलिए इन्हें दारुब्रह्म कहते है । जगन्नाथ भगवान की स्वरूप काले रंग की है , भलभद्र जी श्वेत रंग की है और भगिनी सुभद्रा कुंकुम रंग की है । जगन्नाथ जिस सिहासन पर विराजमान है उसे रत्नसिंघासन कहते है ।

जगन्नाथ भगवान की नवकलेवर क्या है ?

जगन्नाथ भगवान की नूतन प्रतिमा बनाई जाती है , उसको नव कलेवर कहा जाता है । इस समय निम्ब काष्ठ से ( निम की लकड़ी) नूतन मूर्ति बनाई जाती है । ओडिशा में महारणा नाम एक जाति है , जो शिल्प कला में पारंगत है । इनकी बंश परंपरा से ये शिल्पी कार्य करते आरहे है । जैसे की मंदिर निर्माण, मूर्ति निर्माण इन कि DNA में बसा हुआ है , ओडिशा की प्रसिद्ध कोणार्क सूर्यमंदिर – विसु महारणा और उनके 1200 कारीगरों ने मिलकर बनाया था ।

जगन्नाथ भगवान के मूर्ति की निर्माण भी इन्ही महारणाओं के द्वारा होता है ।

जगन्नाथ रथयात्रा कायों निकालि जाति है, विडियों में देखें

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वर्ष 2015
29 मार्च 2015 – 27 जुलाई 2015

जगन्नाथ जी के नवकलेवर कब होती है ।

भारतीय पञ्चाङ्ग के अनुसार प्रति 3 वर्ष के बाद एक अधिकवर्ष होता है , इस वर्ष एक मास अधिक होता है , इसको अधिक कहते है ,

जिस वर्ष अधिक मास के रूप में आषाढ़ की मास बढ़ जाता है , उसी वर्ष , उसी अधिक मास में जगन्नाथ भगवान की नूतन मूर्ति बनाई जाती है । मेरे जीवन काल के 1996 में हुआ था नवकलेवर , तब में रेडियो के माध्यम से सुना था, उसी वर्ष हमारे गांव के पास वाले गाँव मे भी जगन्नाथ भगवान की नूतन मूर्ति बनाई गई थी ।

दूसरी वार 2015 में हुआ था । इस वर्ष 29 मार्च से नवकलेवर महोत्सव आरम्भ होकर 27 जुलाई 2015 में सम्पूर्ण हुआ था ।

नव कलेवर की विधि क्या है

मूर्ति निमार्ण केलिए निम की बहुत पुराने लकड़ी की खोज की जाती है और उनको विधि पुर्वक पूजन करके संकीर्तन करते हुए लाया जाता है । उन्ही लकड़ी से उत्तम तिथि में महारणा शिल्पिकारों के द्वारा मूर्ति निर्माण की जाती है । जगन्नाथ , भलभद्र , सुभद्रा और सुदर्शन ये चार प्रतिमा बनाई जाती है । जब मूर्ति पूर्णरूप में तैयार होजाते है तब प्राणप्रतिष्ठा किआ जाता है ।

जगन्नाथ तत्त्व की पुनर्स्थापना

ये विधि स्वरूप की विशिष्ठ विधि होती है । कहा जाता है इस विधि की वही हिस्सा बनता है , जो जगन्नाथ भगवान के परम सेवक हो , अनन्य भक्त हो । जगन्नाथ जी स्वप्नादेश करते है और उस सेवक भक्त को चुनते , जिसकी हृदय में जगन्नाथ जी के प्रति अटूट श्रद्धा हो। जो जगन्नाथ मंदिर में सेवा करते है उनको सेवा पंडा कहा जाता है , उनमे से किसी एक पंडा को ये सौभाग्य प्राप्त होता है ,

पुराने जगन्नाथ मूर्ति से जगन्नाथ तत्त्व को निकाल कर नूतन मूर्ति में स्तापित किआ जाता है , उस समय सेवक पंडा के आंख में कपड़े बंधे होते है , अर्थात वो कुछ भी नही देख सकते , केवल स्पर्श कर के जो अनुभव करते है । कहा जाता है जगन्नाथ तत्त्व कोई जीवन्त पिंड जैसा होता (मेरे पास शब्द नही है इस विषय को वर्णन केलिए)

हमने अपने गुरुजनों से जो सुना है वो जगन्नाथ तत्त्व को भगवान की मूर्ति में नाभि के स्थान पर प्रतिस्थापित किआ जाता है । इस तरह तीनो ठाकुर की विधि होती है ।

रथयात्रा से पूर्व ही नवकलेवर महोत्सव पूरा हो जाते है । जब शुद्ध आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष, द्वितीया तिथि को नियत दिन रथ यात्रा नकाली जाती है। जगन्नाथ भगवान रथ में विराजमान हो कर सभी भक्तों को दर्शन देते है ।

जय जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी भवतुमे।

FAQ: संबन्धित प्रश्न

Q. जगन्नाथ रथ यात्रा कब निकाली जाती है ?

उत्तर- आषाढ मास की शुक्लपक्ष द्वितीया को

Q. जगन्नाथ धाम क्षेत्र के नाम क्या क्या है ?

उत्तर- नीलाचल , शंखक्षेत्र, पुरुषोत्तम क्षेत्र, पुरिधाम,

Q. भारत की किस दिशा में पूरी धाम है ?

उत्तर- पूर्व दिशा में समुद्र तट पर

Q. जगन्नाथ धाम के निकटवर्ती तीर्थ क्षेत्र कौन कौन है ?

उत्तर- कोणार्क सूर्यमंदिर, लिंगराज मन्दिर भुबनेश्वर, साक्षी गोपाल ,

Q. निलमाधब कौन से जंगल मे थे

उत्तर- कंटीलो

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